क्या है सिलंबम? (what is silambam?)
हमारे देश में आरम्भ-काल से ही अलग-अलग प्रकार के प्रदेशों में कई प्रकार की प्रजातियां हैं। जिनमें कई प्रकार की शस्त्र-कलाएं एवं युद्ध-कौशल देखने को मिलते हैं। भारत के तमिलनाडु प्रदेश में ऐसी प्राचीन भारतीय युद्धकला (an ancient India martial art) है जो कि शस्त्रों के साथ खेली जाने वाली एक कला है। इसका नाम है सिलंबम (silambam)। इस शब्द सिलंबम (silambam) का तमिल भाषा में अर्थ है पहाड़ों पर तेज वेग से बहती हुई हवा के तीव्र प्रचंड वेग से उत्पन्न ध्वनि। जिस प्रकार तेज गति से बहती हुई वायु जब किसी ठोस वस्तु से टकराकर या चीरकर निकलती है, तो एक विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है। वैसी ही ध्वनि को सिलंबम (silambam) कहते हैं। यह ध्वनि वीरता के जयघोष का आभास कराती है। जब हम किसी बांस, लाठी या छड़ी को वायु में तेज गति से लहराते हैं तो एक अलग प्रकार की ध्वनि सुनाई देती है। ऐसी ध्वनि के आधार पर ही इस शस्त्र-कला का नाम सिलंबम (silambam) रखा गया।
ये हैं अदभुत प्राचीन भारतीय युद्ध कलाएं
सिलंबम की ऐतिहासिक प्रष्ठभूमि (history of silambam)
सिलंबम इतनी प्राचीन कला है कि इसे ऋषि मुनियों के काल से जोड़ कर देखा जाता है। इस कला का इतिहास एक पौराणिक कथा से जुड़ा है। यह कथा हिन्दू-धर्म के महान तपस्वी ऋषि मुनि अगस्त्य जी से सम्बंधित लगभग कई हज़ार वर्ष पुरानी है। प्राचीन धर्म-ग्रंथों में इसका वर्णन कुछ यूँ किया गया है। अगस्त्य मुनि जी ने जंगलों में रहकर कई वर्षों तक कठोर तप-साधना की। एक दिन एक नदी के किनारे ध्यान-मुद्रा में बैठे-बैठे जब उनकी ध्यान अवस्था भंग हुई तो उन्होंने एक वृद्ध-व्यक्ति को अपने समक्ष बैठे देखा। उस व्यक्ति ने मुनि अगस्त्य जी से कुंडलिनी योग एवं साधना से सम्बंधित एवं मनुष्य की शारीरिक शक्ति और देवताओं की शस्त्रों से जुड़ी वीरता की गाथाओं के विषय में काफी समय तक विचार विमर्श किया। कहा जाता है कि वह वृद्ध व्यक्ति भगवान् शिव के पुत्र कार्तिकेय थे। जिन्हें कि तमिल भाषा में मुरुगन स्वामी भी कहा जाता है। वह भेष बदलकर मुनि अगस्त्य जी को इस कला का ज्ञान देने आये हुए थे। भगवान् मुरुगन स्वामी ने मुनि अगस्त्य जी को सिलंबम (silambam) कला का ज्ञान कराया। मुनि अगस्त्य जी ने इस वृत्तांत को कविता के रूप में लिखा और युद्धकला से जुड़े एक महान ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में कविता रूप में इस युद्धकला सिलंबम (silambam) का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ के गहन अध्ययन के पश्चात ऋषि-मुनियों ने अपने आश्रमों में आने वाले विद्यार्थियों को योग शिक्षा के साथ-साथ सिलंबम (silambam) नामक इस कला को भी सिखाना शुरू किया। बाद में यह अद्भुत युद्ध-कौशल से परिपूर्ण युद्धकला बनी।
यह कला दूसरी शताब्दी (ईसा पूर्व) में भारत के तमिलनाडु क्षेत्र में बनी रही। विशेष रूप से पंद्रहवीं शताब्दी में दक्षिणपूर्व एशिया के लोगों ने मलय प्रायद्वीप के भारतीय तमिल समुदाय के लोगों के साथ मिलकर मेलाका नामक स्थान पर इस कला को सीखना शुरू किया। यह कला भारत के अलावा मलेशिया में भी बहुत प्रसिद्ध है। वहां पर भी इस कला से जुड़े सांस्क्रतिक कार्यक्रम आज भी आयोजित किये जाते हैं।
ऐसे हुआ युद्ध कलाओं का जन्म और विकास
इस कला में कई प्रकार के शस्त्रों का प्रयोग किया जाता है। इनके नाम इस प्रकार हैं:-
कट्टारी : (kattari)
एक प्रकार का लचीला बांस, जिसकी लम्बाई लगभग 1.68 मीटर (यानि लगभग साढ़े पांच फीट) तक होती है।
सिलंबम : (silambam)
यह भी एक प्रकार का बांस ही होता है, जिसे टीक या गुलाब चेस्टनट नामक पेड़ से लिया जाता है। इस बांस को लचीला बनाने के लिए इसे कई दिन तक पानी में डुबोकर रखा जाता है। इसके पश्चात इसे सुखाकर इसपर धातु के छल्ले चढ़ा दिए जाते हैं। ताकि इस पर खिलाड़ी की पकड़ मजबूत हो, और खेलते समय यह हाथों से ना फिसले।
मरू : (maru)
यह हिरन के सींगों से बना एक जानलेवा घातक हथियार होता है। इसे भाले की तरह से ही चलाया जाता है। यह एक खतरनाक प्राणघातक अस्त्र की तरह माना जाता है।
कोल : (coal)
यह लगभग 3 फुट लम्बी एक रस्सी होती है जिसके एक छोर पर कपडे या धातु की गेंद बांधी जाती है। इसमें आग लगाकर इसे घुमाया जाता है, ताकि प्रतिद्वंदी को आग से घायल किया जा सके।
सवुकू : (suvuku)
यह चमड़े का एक चाबुक होता है। इसे भी शक्ति प्रदर्शन एवं आत्मरक्षा के लिए प्रयोग किया जाता है।
वाल : (vaal)
घुमावदार लचीली धातु की तलवार। इस तलवार की बनावट गोलाकार बनायीं जाती है। इस तलवार से भी बहुत घातक प्रहार करना सिखाया जाता है।
कट्टी : (katti)
एक प्रकार का चाकू जिसकी लम्बाई एक से डेढ़ फीट तक होती है। यह चाक़ू भी नजदीक से एवं दूर से शत्रु को घायल करने के काम आता है।
कट्टीरी : (katteeri)
एक कांटेदार प्राणघातक खंजर जिसका हैंडल सीढ़ीनुमा अंग्रेजी के ‘H’ अक्षर के आकार का होता है। यह भी एक प्रकार से अस्त्र एवं शस्त्र दोनों की ही श्रेणी में आता है।
सरुल कथी : (sarul kathi)
यह एक ब्लेड नुमा लचीली तलवार होती है। जिसका हैंडल बहुत मजबूत बनाया जाता है। क्योंकि इसको चलाते समय बहुत ही अभ्यास की आवश्यकता होती है।
सेदी कुची : (sedi kuchi)
बांस की छड़ी जो कि दो छड़ियों के जोड़े के रूप में प्रयोग की जाती है। इन दो छडियों को इकट्ठे ही चलाना सिखाया जाता है।
युद्धकला की शैली (style of this ancient indian martial art):
इस शस्त्रकला में सीखने वाले विद्यार्थियों को आरंभ में शारीरिक योग व्यायाम के अलावा बांस की स्टिक को मजबूती से पकड़ना, घुमाना, प्रहार करना एवं बचाव करना आदि सिखाया जाता है। शुरुआत में खिलाड़ियों को इस कला का पहला चरण जिसे तमिल भाषा में कालदी कहा जाता है, वो सिखाया जाता है। कालदी में लाठी को घुमाना, कलाई को मजबूत करना एवं पैरों के संतुलन के साथ फुर्ती से घूमना आदि सिखाया जाता है। इस कला को प्रारंभिक शिक्षण में लम्बे समय तक कालदी का अभ्यास कराया जाता है। जब शिक्षार्थी इस कला में निपुण हो जाते हैं तब साथ-साथ उसे अन्य शस्त्रों के विषय में भी बताना आरम्भ कर दिया जाता है।
बोथाटी एक प्राचीन भारतीय युद्ध कला
सिलंबम का आधुनिक परिवेश (the modern surroundings of silmbam)
यह कला सन 1930 से लेकर 1960 के दशक के तमिल सिनेमा में भी बनी रही। कई प्रसिद्ध तमिल फिल्म कलाकारों ने इस कला को सीखा। तमिल फिल्मों में भी इस कला का प्रदर्शन किया गया। आज भी यह कला तमिलनाडु के अलावा मलेशिया में काफी लोकप्रिय है।
यदि आपके पास भी इस कला के विषय में कुछ अन्य जानकारी या सुझाव है तो हमें अवश्य लिखें। धन्यवाद