आयुर्वेद के अनुसार बाय-गठिया के कारण:
(cause of arthritis according to ayurveda)
आयुर्वेदिक मनीषियों के मतानुसार, कसैले, अधिक कड़वे, तीक्ष्ण, रूखे पदार्थ खाने से स्वल्प शीतल (ठंडा-बासी) भोजन करने से, अधिक परिश्रम, अधिक मैथुन, धातु क्षीणता, शोक, भय, मांस क्षीणता, वमन (उल्टी) विरेचन (अधिक अतिसार) आम-दोष, वृधपन, जलक्रीडा इत्यादि की विशेष प्रबलता से तथा वर्षा ऋतू व तीसरे पहर रात्रि शेष रहने के समय बलवान वयुकुपित होने से शरीर की खाली नसों में प्रवेश होकर (एक अथवा सर्वांग में रहने वाले) वात रोगों को उत्पन्न करती है। वात रोगों के चौरासी भेद हैं। यहाँ पर लेख के अधिक लम्बा होने के भय से सभी का विस्तार पूर्वक वर्णन नहीं किया जा रहा है। आमवात (गठिया) इन चौरासी प्रकार के वात रोगों में सबसे ज्यादा कष्टकारी तथा भयावह रोग माना जाता है। अक्सर यह रोग चालीस वर्ष की आयु पर्यंत ही होता है। परन्तु कभी कभी इससे पहले की आयु में भी इसका प्रकोप देखने सुनने में आता है। जिस मनुष्य के शरीर में पञ्च-वायु अपने स्वभाव व स्थानानुकुल स्थित रह कर किसी प्रकार से अवरोधित न होवे वह मनुष्य एक सौ वर्ष पर्यंत रोग रहित जीवेगा। क्योंकि शरीरस्थ वायु के विकार से ही प्राणी रोगयुक्त होकर पूर्ण आयु नहीं भोग पाते हैं। इस बात पर प्रत्येक वैद्य और आम जन (मनुष्य) को पूर्ण ध्यान देना चाहिए। उक्त एक सौ वर्ष का आयु प्रमाण कलियुग के मनुष्य का है। इसलिए मनु महाराज ने मनुस्मृति में लिखा है:-
“आरोग: सर्वसिद्धार्थश्रातुर्वर्षरतायुण:
कृतत्रेतादिवु ह्योषामायुहृमरसति पादरा:
अन्यव-राताबुवे पुरुष:
रातशब्दौस्व बहुत्वपर: कलिपरौ वा।।”
कैसे हुआ आयुर्वेद का जन्म?
मनुस्मृति के इस श्लोक का अर्थ:
मनुष्यों की आयु कृतयुग (सतयुग) में चार सौ वर्ष, त्रेतायुग में 300 वर्ष, द्वापर में 200 वर्ष थी और अब कलियुग में एक सौ वर्ष की है। आयु के उक्त निश्चित वर्षों से कम आयु भोगने का मुख्य कारण स्वधर्म से च्युत होकर अधर्म सेवन करना ही है। क्योंकि अधर्म सम्बन्धी कार्य करने से, रोग-उत्पत्ति होने से आयु नष्ट हो जाती है। मंदाग्नि वाला पुरुष (मनुष्य) कुपथ्यपूर्वक चिकना अन्न खाने पर परिश्रम न करे तो वायु की प्रेरणा से भक्षित अन्न का कच्चा रास कफाश्य (ह्रदय) में प्राप्त होकर नसों में प्रवेश करता है तथा वही रस त्रिदोष से अति दूषित होने से शरीर की नसों को पूरित करके अग्निमान्द्य को प्रकट करता है। तब शरीर भारी होकर ‘आम’ तथा सर्वरोग उत्पन्न होते हैं। मंदाग्नि वाला मनुष्य अजीर्ण में भोजन करता है। इसलिए उसके उदर में ‘आम’ उत्पन्न होकर अनेक रोगों को उत्पन्न करती है। तब मस्तिष्क, अंग, स्कन्ध, पृष्ठ, कटि तथा घुटनों इत्यादि अन्य संधियों में पीड़ा, भोजन में अरुचि, शरीर में भारीपन, तृषा और आलस्य की अधिकता, पाचन-शक्ति का अभाव तथा ज्वरादि का वेग यह सब गठिया रोग के लक्षण हैं।
बाय-गठिया की चिकित्सा:
(cure or treatment of arthritis according to ayurveda)
किसी योग्य वैद्य की देख-रेख में योगराज गुग्गुल, महायोगराज गुग्गुल, रास्नादि चूर्ण अथवा क्वाथ कल्याणवलय एवं महानारायण तेल या विषगर्भ तेल का प्रयोग करें। इनका सेवन लाभप्रद रहेगा। किन्तु इन आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन किसी योग्य चिकित्सक की देखरेख में ही करें। बेशक इस रोग को समय अधिक लगता है। तथापि आयुर्वेदिक चिकित्सा द्वारा इस जटिल रोग का इलाज संभव है।