सिखों की धर्मयुद्ध कला गतका के प्रथम गुरु या जन्मदाता होने का श्रेय ‘बाबा बुड्ढा जी’ को जाता है। बाबा बुड्ढा जी का जन्म बिक्रमी सम्वत के अनुसार 7 कतक 1563 (22 अक्टूबर 1506 ईस्वी) को पंजाब के गांव कत्थूनंगल, जिला अमृतसर में हुआ था। उनके पिता का नाम बाबा सुग्घा जी एवं माँ का नाम माता गोरां जी था। इनके बचपन का नाम था भाई बूढ़ा जी।
श्री गुरु नानक देव जी ने एक बालक को बुड्ढा कहकर क्यों पुकारा?
बाबा जी का नाम बाबा बुड्ढा जी होने के पीछे भी एक कारण था। अब चूँकि बाबा जी एक जमींदार किसान के यहाँ पैदा हुए थे, इस कारण वह बचपन से ही खेती-बाड़ी के काम में माता पिता का हाथ बंटाया करते थे। वह बचपन से ही शांत स्वभाव के थे। एक बार श्री गुरु नानक देव जी अपनी तीसरी उदासी (विश्व शांति यात्रा) के दौरान पंजाब में बाबा जी के गांव में आये तो वहां पर कुछ समय के लिए रुके। जब बाबा बुड्ढा जी को यह पता लगा कि स्वयं श्री गुरु नानक देव जी उनके गांव में पधारे हैं, तो वह गुरूजी के दर्शन हेतु एक बर्तन में दूध लेकर गुरु जी के पास जा पहुंचे। गुरु नानक देव जी के दर्शन करने के बाद उन्होंने गुरूजी की चरण-वंदना की और दूध भेंट किया। गुरूजी ने दूध ग्रहण किया और बालक बूढ़ा (जिनकी आयु उस समय लगभग 12 वर्ष की थी) को आशीर्वाद दिया। बाबाजी ने आदरपूर्वक नमस्कार किया और उनसे जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति का मार्ग पूछा। यह सुनकर गुरु नानक देव जी आश्चर्य चकित हुए, कि जिस बाल आयु में मनुष्य खेलने-कूदने और जीवन का आनंद लेने में व्यस्त रहता है, उस आयु में कोई बालक इस तरह कि बड़े बूढ़ों वाली बात कैसे कर सकता है। बालक ने फिर अपना प्रश्न दोहराया तो गुरु नानक देव जी ने कहा, कि तू है तो बालक, लेकिन बातें बूढ़ों जैसी करता है। तू वास्तव में ही बूढ़ा (अर्थात सोच के लिहाज से बुजुर्ग) है। इसके पश्चात् श्री गुरु नानक देव जी ने उन्हें ‘बाबा बुड्ढा’ कहकर पुकारा। तब से उनका नाम ‘बाबा बुड्ढा जी’ ही लोकप्रिय हो गया।
श्री गुरु नानक देव जी ने दिया उन्हें ईश्वरीय ज्ञान
श्री गुरु नानक देव जी ने पहले बाबा जी को बाबा बुड्ढा कहकर उन्हें एक सार्थक नाम दिया। तत्पश्चात गुरु नानक देव जी ने बालक बुड्ढा को ईश्वरीय ज्ञान दिया। साथ ही उन्हें ये आदेश भी दिया कि प्रभु-भक्ति के साथ-साथ समाज की भलाई के कार्य भी करते रहो। ऐसा करते रहोगे तो स्वयं ही सारे बंधनो से मुक्त हो जाओगे। गुरु नानक देव जी से दीक्षा लेने के बाद बाबा बुड्ढा जी उनके अनन्य भक्त बन गए और अपना जीवन समाज, धर्म एवं मानवता की सेवा में समर्पित कर दिया।
बाबा बुड्ढा जी को ऐसे मिली प्रेरणा शस्त्र कला सीखने की
जहाँ बाबा जी शांत स्वभाव के थे, वहीं उन्हें शस्त्रों से भी बहुत लगाव था। अब क्योंकि खेती-बाड़ी और पशुओं की सेवा करते समय हाथ में लाठी रखना तो उनका स्वभाव था, लेकिन उन्हें लाठी चलाने का भी बहुत शौंक था। चूँकि श्री गुरु नानक देव जी तो शांतिदूत बनकर इस दुनिया में आये थे, और उन्होंने बाबा बुड्ढा जी को मानवता की शांतिपूर्वक सेवा करने का कार्य सौंपा था। किन्तु शांति को कायम रखने के लिए भी ताकत की आवश्यकता होती है। श्री गुरु नानक देव जी को इसका ज्ञान था कि इस शांति को बनाये रखने के लिए एक दिन क्रांति की आवश्यकता अवश्य पड़ेगी। इसलिए उन्होंने बाबा बुड्ढा जी को आशीर्वाद दिया और उन्हें सेवा के साथ-साथ सामाजिक क्रांति के लिए भी प्रेरित किया। बाबा बुड्ढा जी ने स्वयं भी शस्त्रकला का अध्ययन किया और इस कला को कई नए आयाम दिए।
गतका एक सिख युद्धकला
बाबा बुड्ढा जी ने प्राप्त किया ब्रह्म ज्ञान
शस्त्रकला एवं परोपकार साथ-साथ उनके चरित्र में गुरु के प्रति भक्ति एवं आध्यात्मिक शक्ति का निरंतर संचार होने लगा। वह भक्ति की ही एक अवस्था जिसे कि ‘ब्रह्मज्ञान’ कहते हैं को प्राप्त कर गए। कहते हैं कि जो मनुष्य ईश्वर की आराधना करते हुए ‘ब्रह्मज्ञान’ की अवस्था को पा लेता है उसे किसी प्रकार की सांसारिक शिक्षा या कला को सीखने की आवश्यकता नहीं होती। यानि कि ईश्वर की कृपा से उस मनुष्य को स्वतः ही समस्त कलाओं का ज्ञान हो जाता है। ऐसा ही कुछ ‘बाबा बुड्ढा जी’ के साथ घटित हुआ। उन्होंने अपने शारीरिक बल से तो शस्त्रकला का अभ्यास किया ही लेकिन अध्यात्म की शक्ति और गुरु नानक देव जी के आशीर्वाद ने उन्हें संत के साथ-साथ एक सम्पूर्ण योद्धा भी बना दिया। बाबा जी एक ऐसा योद्धा बन गए जोकि समाज में भलाई के कार्य करते हुए यदि अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठानी पड़े तो पीछे ना हटे, बल्कि उसका सामना करे।
गुरुओं की सबसे अधिक समय तक सेवा की
बाबा बुड्ढा जी ने पहले सिख गुरु श्री गुरु नानक देव जी से लेकर छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिंद जी तक की अपने जीवन काल में सेवा की, और सिख गुरुओं के साथ सबसे अधिक समय बिताने का सौभाग्य प्राप्त किया। बाबाजी ने स्वयं पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव जी को भी शस्त्र-विद्या सिखाई। गुरु अर्जुन देव जी भाला चलाने की कला में निपुण थे। पांचवें गुरु जी के समय तक तो भारत में शांति का माहौल था, किन्तु कुछ समय बाद विदेशी लुटेरों ने देश की शांति को भंग करना आरम्भ कर दिया था। गुरूजी को शस्त्रकला का ज्ञान होने के बावजूद भी कभी युद्ध करने की आवश्यकता नहीं पड़ी, क्योंकि वह तो शांति-त्याग एवं बलिदान की प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने अपना जीवन सत्य की खातिर कुर्बान कर दिया।
बाबा बुड्ढा जी ने गुरु श्री गुरु हरगोबिंद जी को सिखाई शस्त्र विद्या
गुरु अर्जुन देव जी ने अपने जीवन-बलिदान करने से पूर्व बाबा बुड्ढा जी को आदेश दे गए कि मेरे जाने के बाद मेरे पुत्र को शस्त्रकला में निपुण कर दो ताकि वह अन्याय के विरुद्ध दोहरी लड़ाई लड़ सके। गुरु अर्जुन देव जी की शहादत के पश्चात सिख समाज में क्रोध एवं प्रतिशोध की ज्वाला धधक उठी। छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिंद जी ने दो तलवारें धारण की और बाबा बुड्ढा जी के नेतृत्व में शस्त्रधारी सिख सैनिकों की फ़ौज का निर्माण किया। इस प्रकार से अन्याय के विरुद्ध लड़ने का संकल्प लेकर गुरूजी ने सिख वीरों को शस्त्रकला में निपुण होने के लिए प्रेरित किया।
श्री गुरु हरगोबिंद जी ने इस विद्या को नाम दिया
गुरु हरगोबिंद जी ने स्वयं शस्त्रकला की विद्या बाबा बुड्ढा जी से ही ली थी, परन्तु उन्होंने भी शस्त्रकला में कई नए आयाम एवं प्रयोग किये। उन्होंने इस चली आ रही परम्परागत शस्त्रकला को ‘गतका’ का नाम दिया तथा कई प्रकार के अस्त्रों-शस्त्रों का निर्माण करवाया। कुछ इतिहासकारों का मत है कि बाबा बुड्ढा जी ने सिख गुरुओं और अनेकों सिख सैनिकों को शस्त्रकला सिखाई और उन्हें कुशल योद्धा बनाया। इसके बावजूद उन्होंने स्वयं किसी युद्ध में भाग नहीं लिया। लेकिन शस्त्रकला के ज्ञाता एवं गुरु होने का श्रेय उन्हें ही जाता है।
बाबा बुड्ढा जी की आयु थी 125 वर्ष
बाबा जी की आयु 125 वर्ष के लगभग मानी जाती है। इस लम्बे जीवन काल में उन्हें चार गुरु साहिबान को गुरु-गद्दी पर सुशोभित करने की रस्म निभाने का अवसर मिला। वह अपने जीवन काल में सेवा एवं ईश्वर भक्ति करते हुए समाज और मानवता की भलाई के कार्यों में लगे रहे। पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव जी ने जब आदि-ग्रन्थ ‘श्री गुरु ग्रन्थ साहिब’ जी (सिखों का धार्मिक ग्रन्थ) की स्थापना श्री हरिमंदिर साहिब अमृतसर में की तो इस ग्रन्थ की स्थापना का पवित्र कार्य भी बाबा बुड्ढा जी को ही सौंपा गया। इसके कुछ वर्षों बाद बाबा जी गुरु हरगोबिंद जी से आज्ञा लेकर अपने गांव रमदास में चले गए। ईसवी 1631 में बाबा जी ने अपना शरीर त्याग कर अपनी सांसारिक यात्रा पूर्ण किया और ईश्वर के चरणों में चले गए। आज भी सिख जगत में उनका नाम शस्त्रकला के गुरु और एक महान संत के रूप में लिया जाता है।